Sunday, September 14, 2014

पढ़ूँ कैसे

पढ़ूँ कैसे उस दिल को

जिसकी  हर धड़कनों से

शबनमी आँसू लहू बन रहे है

रंजो गम की स्याही में लिपटी

जिस इबादत ने

रूप बदल डाले

अस्तित्व बदल डाले

उस खारे समंदर को

मीठी सरिता बनाऊ कैसे

रूठे रूठे बेकाबू जज्बातों को

रोशनी का दर्पण दिखलाऊ कैसे

ना कोई चाहत

ना कोई अरमान

टूटे बिखरे इन अरमानों से

प्रेम की माला पुनः गुंथु कैसे

पढ़ूँ फिर कैसे

नया काव्य लिखू फिर कैसे

आस जिसकी छूट गयी

डोर जिसकी टूट गयी

सपनों की उम्मीद जगाऊँ

उसमें फिर कैसे

जगाऊँ फिर कैसे
  


1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (15-09-2014) को "हिंदी दिवस : ऊंचे लोग ऊंची पसंद" (चर्चा मंच 1737) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हिन्दी दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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