Sunday, September 20, 2015

अधूरा मिलन

तराशा था जिसे खाब्बों में

तलाशता फिरा उसे फिर ज़माने में

पर मिला ना कोई ऐसा अब तलक इस जमाने में

रंग भर दे जो उस मूर्त में

तराशी थी जिसकी सूरत खाब्बों में

यूँ तो सितारें अनेक मिले राहों में

पर चाँद वो नजर ना आया

तराशा था जिसे खाब्बों में

माना हुस्न की कमी ना थी ज़माने में

मगर वो ना मिली

तस्वीर जिसकी बसी थी आँखों में

गुनाह यह दिल का था या आँखों का

गुमान इसका ना था

पर चाहत का यह कैसा अहसास था

अरमानों से तराशा था जिसे

रंग उसके

आज भी तलाशता फिर रहा हूँ राहों में

आज भी तलाशता फिर रहा हूँ राहों में
  














6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-09-2015) को "जीना ही होगा" (चर्चा अंक-2105) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. धन्याद शास्त्री जी

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  2. तलाश तो जीवन पर्यंत जलते रहनी है. सुंदर कविता.

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