Thursday, November 12, 2015

अकेला

जमघट था यारों का

मगर अकेला खड़ा था तन्हाई में

गुम थी परछाई भी

अकेला खड़ा लड़ रहा था तन्हाई से

खामोश हो चुकी थी जुबाँ भी

पथरा गयी थी आँखें भी

लफ्ज कोई मिल नहीं रहे थे

लव जैसे खुल नहीं रहे थे

इस पल संग किसीका ना था

नजारा कुछ ऐसा था

सब कुछ होते हुए भी

पास अपने कुछ ना था

पास अपने कुछ ना था

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-11-2015) को "पञ्च दिवसीय पर्व समूह दीपावली व उसका महत्त्व" (चर्चा अंक-2160) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. शास्त्री जी बहुत बहुत आभार
      सादर
      मनोज

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  2. ओंकार जी हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया
    सादर
    मनोज

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