Wednesday, March 1, 2017

मुरीद

दिल के किसी कोने में यह सुगबुगाहट सी थी

अल्फाजों से अब वो गर्माहट नदारद थी

जिंदगी कभी जिसकी मुरीद हुआ करती थी

धड़कने भी वो अब बेईमानी सी थी

वो शौखियाँ वो चंचलता

लफ्जों से जैसे अब महरूम सी थी

मानो रूठी साँसे कुछ इस तरह ख़फ़ा सी थी

रूह अपनी भी जैसे अब परायी सी थी

चित भी नितांत अकेला सा था

क्योंकि

इस एकांत की ख़ामोशी तोड़ने वाली

धड़कनों का शोर भी अब जैसे मौन था

अल्फ़ाज अब उन लबों से जैसे कोशो दूर थे

अक्सर जिनपे लफ़्ज

इन धड़कनों के ही सजा करते थे

इन धड़कनों के ही सजा करते थे

2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 02-03-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2600 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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    Replies
    1. दिलबाग भाई

      मेरी रचना लिंक करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
      सादर
      मनोज

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