Friday, February 2, 2018

मौका

मशग़ूल रहा मैं जिंदगी की दौड़ भाग में

गुफ्तगूँ कभी कर ना पाया अपने आप से

वक़्त मेरे लिए ठहर पाया नहीं

गुजर गयी जिंदगी जैसे घुँघरू की ताल पर

सोचा कभी साक्षातार करलूँ जीवन आत्मसात से

थिरकने फिर इसकी धुन पर

चल पड़ा मैं

कभी मधुशाला की चाल पर

कभी मंदिर मस्जिद की ताल पर

रूबरू फिर भी हो ना पाया अपने आप से

मंजर इसका बयाँ कैसे करुँ समझ ये कभी पाया नहीं

नापाक खुदगर्जी सी लगने लगी

बटोरी थी अब तलक जो शौहरतें

कसक बस एक इतनी सी रह गयी

मिलने खुद से

ललक अधूरी यूँ रह सी गयी

निर्वृत हो जाऊँ अब मोह माया जाल से

गले लिपट रो सकूँ अंत में अपने आप से

कशिश कही यह अधूरी रह ना जाए

इसलिए जिंदगी बस एक मौका ओर दे दे

ताकि सकून से

गुफ्तगूँ कर पाऊँ अपने आप से

अपने आप से

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-02-2018) को "अपने सढ़सठ साल" (चर्चा अंक-2869) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर

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