Thursday, July 26, 2018

पहचान

पहरेदार ज़माना जो बन बैठा

हमनें भी फ़िर आशिक़ी में तेरी

पहचान को अपनी गुमशुदा बना दिया

इश्क़ ही हैं सरफ़िरे दीवानों का मजहब

इस हक़ीक़त से ज़माने को रूबरू करा दिया

ठुकरा हर आयतें हर कलमा खुदा की

इश्क़ की इबादत को ही

पहचान अपनी बना लिया

बिस्मिल्लाह कर मोहब्बत से

इश्क़ के आफ़ताब का नूर ऐसा बना

आशिक़ों की फ़ेहरिस्त में

सबसे ऊपर

नाम अपना शुमार करा लिया

नाम अपना शुमार करा लिया




1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-07-2018) को "ग़ैर की किस्मत अच्छी लगती है" (चर्चा अंक-3046) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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