Tuesday, February 26, 2019

दर्पण अभिशाप

कल जब आईना देखा तब यह अहसास हुआ

वक़्त कितनी रफ़्तार से बदल गया

मन चिंतन तन वंचित विग्रह कर उठा

यादों के गलियारों में यह कैसा सन्नाटा पसर गया

कारवाँ जो साथ जुड़ा था कब का बिछड़ गया

पथरों के शहर में

बस एक मूकदर्शक बन रह गया

यूँ लगा मानों कितनी सदियाँ गुजर गयी

रंगत क़ायनात की फ़िज़ा संग अपने बदल गयी

सब था पास मगर सब्र ना था अब पास मगर

रौशनी से जैसे छन रही तम की माया नजर

एक अजनबी ख़ामोशी के मध्य

टूट रहे थे अब झूठे तिल्सिम के साये

रूबरू हक़ीक़त पहचान डर गया मन बाबरा

निहारु ना अब कभी दर्पण

लगने लगा यह जीवन अभिशाप कामना

लगने लगा यह जीवन अभिशाप कामना

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-02-2019) को "बैरी के घर में किया सेनाओं ने वार" (चर्चा अंक-3260) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. यूँ लगा मानों कितनी सदियाँ गुजर गयी

    रंगत क़ायनात की फ़िज़ा संग अपने बदल गयी

    सब था पास मगर सब्र ना था अब पास मगर

    रौशनी से जैसे छन रही तम की माया नजर

    एक अजनबी ख़ामोशी के मध्य

    टूट रहे थे अब झूठे तिल्सिम के साये...बेहतरीन लेखन |
    सादर

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