Thursday, August 22, 2019

बेबजह

कोशिश करता हूँ मुस्कराने की

रुन्दन के आलाप को छिपाने की

दगा पर दे जाती हैं लकीरें ललाटों की

सूनी पथराई आँखों का मंजर

कह रहा देख ताबीर हाथों की

ले कटारी उकेर दूँ

किस्मत की इन अछूती लकीरों को भी

भूल गया था सँवारने खुदा जिन्हें

सपनों की अनमोल जल तरंगों सी

प्यासी रह गयी थी अन्तरआत्मा

रिस रहा लहू अंतर्द्वंद के प्रहरों से भी

वक़्त के पहले चहरे पर पड़ी सलवटें

चीख चीख सुना रही कहानियों इन लक़ीरों की

कर समझौता उदासी के इन रंगों से

उम्र अब एक नयी लिखूँ

बेबजह मुस्कराने की

बेबजह मुस्कराने की

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