Tuesday, April 21, 2020

अजनबी जिंदगी

ना जाने जिंदगानी को किसकी नज़र लग गयी l
अब तो बस यह किस्तों में सिमट रह गयी ll

ताबीज़ को मानो खुद की नज़र लग गयी l
जैसे धुप खुद अपनी तपिश से जल गयीll

साँझ की कवायदें भी अब बिन सुरूर ही ll
बंद मयखानों की ज़ीनों पे ही ढल गयी ll

मौशकी थी जिसकी तारुफ़ से l
चाँद बन वो भी बादलों में छुप गयी ll

अब क्या नींद क्या नींदों के पैगाम l
बिन पलक झपके ही रात ढल गयी ll

सफ़र अब यह अजनबी सा बन गया l
हमसफ़र साँसों का साथ दूर छूट गया ll

कल तलक जो एहतेराम हबीबी था l
आज संगदिल बेरूह जिस्म बन गया ll

मज़लिस सजी रहती जिसकी धुनों पे l
धुंध पड़ गयी मय्यत की उसके सीने पे ll

करवटें बदल राहें बदल साजिशें ऐसी रची काफ़िर ने l
हाथ छुड़ा जिंदगी दूर हो गयी जिंदगानी से ll

मायूसी का आलम ओढ़ रुखसत हो गयी रूह l
रोती बिलखती रह गयी धड़कनों की रूह ll

किस्तों में बंट गयी जिंदगानी की रूह l
किस्तों में बंट गयी जिंदगानी की रूह ll

3 comments:

  1. ये समय की मार है जो अनजाने ही ज़िन्दगी को अजनबी बना गई ... ज़िन्दगी से पहचान वैसे भी बहुत मुश्किल है ...

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    1. आदरणीय दिगंबर जी
      मेरी रचना को पसंद करने के लिए दिल से शुक्रिया
      आभार
      मनोज

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  2. आदरणीय शास्त्री जी
    मेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए दिल से शुक्रिया
    आभार
    मनोज

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