संग पानी के
रेत दरियाँ की
लिपटी क़दमों से
ऐसे l
मृगतृष्णा सी हिना सज गयी रेगिस्तान
में जैसे ll
आसमाँ भी उतर
आया सुन इसके
झांझर की झंकार l
मुद्दतों बाद कोई
सौगात ले आयी
रंगों नूर की
बारात ll
कुरेदा था जिसे
कभी हथेलियों पर
आयतों की तरह l
खुशफहमियाँ
उन मौजों की
मिल रही खुदा
की तरह ll
आतुर कश्ती भी डोली
थी कभी छूने
इसके साहिल को l
सिमट गयी थी
खोई खोई संकुचित
लहरें अपने पानी
को ll
बेबाक सी कह
गयी थी दीवारें
उस अंजुमन मजार
की l
रुखसत होते ही
तेरे हिज्रे बेनकाब
हो गयी हिजाब
की ll
तसव्वुर उस चाँद
का ओझल हुआ
नहीं दिल के
बीच l
खाब्बों के दरमियाँ
अकेला रह गया
इसके सजदे बीच ll
वाह
ReplyDeleteआदरणीय भाई साहब
Deleteमेरी कृति पसंद करने के लिए आपका दिल से शुक्रिया
संग पानी के रेत दरियाँ की लिपटी क़दमों से ऐसे l
ReplyDeleteमृगतृष्णा सी हिना सज गयी रेगिस्तान में जैसे ll
अति सुन्दर ॥
आदरणीया मीना दीदी जी
Deleteमेरी कृति पसंद करने के लिए आपका दिल से शुक्रिया
वाह!!
ReplyDeleteतसव्वुर उस चाँद का ओझल हुआ नहीं दिल के बीच..
क्या कहने..
बधाई
आदरणीया दीदी जी
Deleteमेरी कृति पसंद करने के लिए आपका दिल से शुक्रिया
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 6 अप्रैल 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
अथ स्वागतम् शुभ स्वागतम्
आदरणीया दीदी जी
Deleteमेरी कृति को अपना मंच प्रदान करने के लिए आपका दिल से शुक्रिया
अच्छी रचना
ReplyDeleteमन खुश हुआ
आदरणीया विभा दीदी जी
Deleteमेरी कृति पसंद करने के लिए आपका दिल से शुक्रिया
वाह!!बहुत खूब!
ReplyDeleteआदरणीया शुभा दीदी जी
Deleteमेरी कृति पसंद करने के लिए आपका दिल से शुक्रिया