Sunday, March 19, 2017

अंशदान

वो ठहराव ही ना मिला जिसका इंतजार था

माना धाराओं का वेग कही शांत तो कही प्रचंड था

पर लहरों के थपेड़ों से टूटते

किनारों का मंजर ही सिर्फ सामने था

हर गुजरते लहमों का इसे बखूबी अंदाज़ था

पर कहने को भी पास अपने

इस जिंदगानी का हिसाब ना था

कभी दरख़्तों में तो कभी पर्वतों में

खो जाने का जूनून जो साथ था

पास इसके भी मगर

बिखरी मंजिलों का सच साथ था

शायद रूह का

आँधियों से लड़ने का हौसला पस्त था

चमक भी वो विलुप्त सी प्रतीत थी

समर बेंधने की कला में जिसे पारंगत हासिल थी

शून्य भँवर का वेग भी

कुछ ऐसा ही गतिमान प्रतिबिंबित सा था

साधना पल, ध्यान भी मानो

रूह से अपनी विरक्त सा था

ठहराव की इस व्यथा में

मानो सृष्टि की संरचना का भी

अपना कुछ अंशदान सा था

कुछ अंशदान सा था

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-03-2017) को

    चक्का योगी का चले-; चर्चामंच 2608
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. शास्त्री जी

    रचना संग्लन करने के बहुत बहुत धन्यवाद्
    सादर
    मनोज

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