बरगद का वो पेड बारिश की वो मस्ती l
छुपी थी जिसमें मेरे सपनों की बस्ती ll
पंख लगा उड़ गयी उन पलों की मस्ती l
छोड़ गयी पीछे रंजो गम की बस्ती ll
शहर बदल उजड़ गयी नींदों की बस्ती l
छूट गयी दूर कही माँ के हाथोँ की थपकी ll
रोम रोम अंग महक रही गांव की वो मिट्टी l
लौट आ उस पल पुकार रही खेत खलियानों की बस्ती ll
नहीं थी खेल खिलौनों की इतनी बस्ती l
पर इन सबों से अच्छी थी वो कागज़ की कश्ती ll
नंगे पैरों में थी एक अजब सी मस्ती l
चुभ रही जूतों में काँटों की बस्ती ll
वो आबो हवा गांव के चौपाल की मस्ती l
यहाँ ना घर ना दालान सजी हुई पत्थरों की बस्ती ll
याद आ रही उन चौबारों गलियों की मस्ती l
काश लौट वापस आ सकता जीने उस बस्ती ll
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (16-08-2020) को "सुधर गया परिवेश" (चर्चा अंक-3795) पर भी होगी।
ReplyDelete--
स्वतन्त्रता दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
आदरणीय शास्त्री जी
Deleteआपको भी स्वंत्रता दिवस की बधाई
मेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए शुक्रिया
आभार
सुन्दर
ReplyDeleteआदरणीय सुशील जी
Deleteमेरी रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आभार
सुन्दर कविता
ReplyDeleteआदरणीय ओंकार जी
Deleteमेरी रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आभार
सुंदर सृजन।
ReplyDeleteजय हिन्द।
आदरणीय जी
Deleteमेरी रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
जय हिन्द
आभार
याद आ रही उन चौबारों गलियों की मस्ती l
ReplyDeleteकाश लौट वापस आ सकता जीने उस बस्ती ll
बहुत खूब,पर गुजरा वक़्त कहाँ लौटकर आता है,सुंदर सृजन,सादर नमन आपको
आदरणीया कामिनी जी
Deleteरचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आभार
याद आ रही उन चौबारों गलियों की मस्ती l
ReplyDeleteकाश लौट वापस आ सकता जीने उस बस्ती ll
बहुत खूब ! लाजवाब सृजन ।
आदरणीया दीदी
Deleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
पंख लगा उड़ गयी उन पलों की मस्ती l
ReplyDeleteछोड़ गयी पीछे रंजो गम की बस्ती ll,,,,,,,, बहुत सुंदर और भावपूर्ण रचना,
आदरणीया दीदी
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार
बहुत ही अच्छे शेर हैं मनोज जी ... भाव ऐसे ही लिखते रहे ...
ReplyDeleteआदरणीय दिगंबर जी
Deleteआपका बहुत बहुत शुक्रिया
आभार