Wednesday, February 12, 2020

तेरा शहर

नाता तेरे शहर से पुराना  हैं 

उस बरगद का अफसाना आज का फ़साना सा हैं

दरमियाँ जो समेट ली थी चाहतें

वो तो बस मुलाक़ात का एक बहाना हैं

गुजरू जब कभी तेरे शहर की गलियों से

लगे आज भी चमन खिल आया

मानों पीपल की टहनियों पे

पसरी जहां मेरे शाम की इबादत हैं

तेरे साये में वहा आज भी मेरे रूह की ही हुकूमत हैं

चौखट दहलीज की कभी लाँघ ना पाया

डोली तेरी किसी और किनारे छोड़ आया

फिर भी अपने आँगन से तेरी खनख विदा ना कर पाया

ना ही तेरे वजूद को खुद से रुखसत कर पाया

और उन शबनमी यादों की मिठास में

तेरे शहर से ही रिश्ता निभाता चला आया