Saturday, November 20, 2021

शिद्धत

शिद्धत से तलाशता फिरा जिस सकून को l
मुद्दतों बाद थपकी दे सुला गया जो मुझको ll 

सनक थी इसके दुलार के उस मीठी खनकार की l
नींदों के आगोश में लोरी सुना सुला गयी जो मुझको ll

अस्तित्व ख्वाबों की उन बिछडी खोई नींदो का l
वज़ूद ढूंढ रही अपना पलकों में ढलती रातों का ll

दस्तक थी उन उनींदी उनींदी दरख़ास्तों की l
दस्तखत दे गयी पलकों पे जो अपने नामों की ll

मुनासिब थी वर्षों से जगी इन पलकों की भी रजामंदी l
झपकी इसकी पल में दे गयी जीवन भर की मस्ती ll

लयवद्ध हो गया मेरा सम्पूर्ण सपनों का शहर l
पहलू में नीँदों की आ मिला जो मुझसे बिछड़ा पहर ll

मग्न हो गयी पलकों बीच आँखे इस कदर l
बेखबर बेसुध हो सो गयी सपनों की डगर ll  

Friday, November 12, 2021

ढलती छावं

खड़ी थी वो लिए उन सुहानी यादों को उस मोड़ पर l
एक ताज महल मैं भी गूँथ लूँ लम्हों के जिस मोड़ पर ll

नये रंग में फिर से लिखूँ हर्फ की यह नयी ग़ज़ल l
की महताब भी मेहरम हो आये इसकी हर नजर ll

सदियों से छुपा रखे उन राज़दार सूखे गुलदस्तों से भी l
हर अंदाज़ में महके अल्फ़ाज़ ताजे हसीन फूलों सी ll

कच्चे धागे से बँधी इस प्रीत की बंधन डोर को l
ताबीज़ बना पहन लूँ इन मन्नत धागों डोर को ll

मोहलत थोड़ी सी ख़रीद लूँ उस आसमाँ खास से l
अर्से बाद बेताब हो रहे अश्रु धारा नयनों साथ में ll

उकेर लूँ इस चहरे को पूरी तरह मेरे आँगन द्वार में l
खो ना जाय फिर कही साया यह ढलती छावं में ll

खो ना जाय फिर कही साया यह ढलती छावं में ll
खो ना जाय फिर कही साया यह ढलती छावं में ll

Tuesday, November 9, 2021

अंतर्ध्वनि

निकला बेचने रूह को जिस्म के जिस बाजार l
बिन सौदागर मौल हुआ नहीं उस सरे  बाजार ll 

अंतर्द्वंद विपासना जलाती रही चिता कई एक साथ l
पर हर कतरे में पाषाण सी थी इस रूह की रुई राख ll

मंडी तराजू के उसके बदलते मंजर के आगे l
भाव शून्य सी कोने में थी काया खड़ी सकुचाय ll

दीवार थी शीशे की पूरी गर्त से ढकी हुई l 
अंधकार की छाया थी दूजी और खड़ी ll

पैबंद में लिपटी रूह की यह स्याह घडी l
बाट जो रही यह बिकने नजरों की गली ll 

विच्छेद दास्तानों भँवर में भटकी अटकी रातों की l
फेहरिस्त दीवानों की इसकी जुदा औरों से थी ll

आज इस महफ़िल में तन्हा थी रूह अकेली l
कद्रदान कोई आया नहीं जीने इसे इस कोठी ll 

जिस्म की मंडी में नीलाम हो ना पायी l
इस रूह की बिलखती यह अंतर्ध्वनि ll 

Monday, November 1, 2021

आईने के रंग

रिवाजों से परे इश्क लगा जब से l 
गली के मोड़ वाली उस लड़की से ll

फितूर बदल आईने ने अजनबी बना दिया l 
हमें अपने ही शहर के गली चौराहों में ll

एक पल उसे निहारने के अंदाज़ से l 
तकाजा बदल गया उसके पहनाव में ll

उसके बरामदे से आती आहटों पर l 
निगाहें अटकी होती उसके इंतजार में ll

गुजरती जब वो मुस्काती हुईं पास से l 
थम जाती साँसें उस एक पल आस में ll

गुलाब जो लिया थमा दूँ उसके हाथों में l 
गजरा सजा दूँ उसके लंबे लंबे बालों में ll

उलझा बुनता रहाअपने खयालों के जाल l 
पर कह ना पाया उससे कभी दिल की बात ll

अधूरा रह गया पैमाना इस इश्क का l 
छलक ना पाए संग उसके इश्क के जाम ll

दस्तूर रंग सब बदल गया उस आईने का l 
इश्क हुआ जब से गली वाली उस लड़की साथ ll