Saturday, October 21, 2017

पल दो पल

पल दो पल सकून से जी लेने दे ए जिंदगी

कुछ और नहीं

बस अपने आप से गुफ्तगूँ कर लेने दे ए जिंदगी

साँसों के अहसानों की रजामंदी में

ग़लतफ़हमी से खुशफ़हमी कर लेने दे ये जिंदगी

सफ़र वृतांत सारांश में

पुनः मासूमियत को तलाशने दे ए जिंदगी

हार के डर से नहीं जीत के ख़ौफ़ से

बदलते परिवेश को रूबरू होने दे ए जिंदगी

मिथ्या समझौतों के इस महा समर से

कुछ धड़कने मुझे उधार दे दे ए जिंदगी

कुछ और नहीं

पल दो पल सकून से जी लेने दे ए जिंदगी




Wednesday, October 4, 2017

अपरिचित नींद

नींद भी आज कल कुछ ख़फ़ा ख़फ़ा हो

अपरिचित बेगानी सी रहती हैं 

पलकों की खुशामदी दरकिनार कर

आँखों से कोसों दूर रहती हैं 

अक्सर ख्यालों में विचरण को

तन्हा नयनों को छोड़ जाती हैं

अधखुली पलकों में

स्याह रात गुजरती नहीं

बेदर्द बेपरवाह नींद

आँख मिचौली से फिर भी बाज आती नहीं

पलकों की बेताबियों से वाकिफ़

शरारतों से अपनी नींद

कभी कभी अश्रु धारा प्रवाहित कर जाती हैं

बोझिल पलकों की फ़रियाद अनसुनी कर

नयनों से नींद नदारद हो जाती हैं

सूनी सूनी पलकों की दहलीज़

नींद की आहट को आतुर

मजबूरन कर बंद आँखों को

ख्यालों से लिपट सो जाती हैं