Tuesday, July 27, 2021

बूँदे

बारिश की उन बूँदों की भी अपनी कुछ ख्वाइशें थी l  
ओस बूँदों सी स्पर्श करुँ उसके गालोँ के तिल पास से ll  

मचली थी घटायें भी एक रोज मदहोशी शराब सी l
छू जाऊ बरस संगेमरमर की उस हसीन क़ायनात को ll 

पर चुपके से दबे पावँ बयार एक दौड़ी चली आयी l
संग अपने उड़ा बादलों को आसमाँ शून्य कर आयी ll 

आवारा हो गयी हसरतें बारिश आते आते इस मोड़ पर l  
बिखरा रंग गयी आसमां काले काले काजल की कोण से ll 

धुन लगी थी बूँदों को भी इसी उम्र बरस जाने की l
भींगी भींगी रातों में बाँहों के तन से लिपट जाने की ll    

आतुर थे छिछोरे बादल भीगने उस बरसात में l
घुँघरू बन सज जाने उन सुने सुने पावँ में ll

Wednesday, July 21, 2021

सकून

अजीब सा सकून था झोपड़े के उस खंडहर में l
बिछौने आँचल पसरा देती माँ रोता मैं जब डर के ll

सिरह जाता कौंधने बिजली कभी आधी रातों में l  
सीने से दुबका नींदों में सुला देते थे तब बाबा भी ll

एक अदद टूटी लालटेन ही रोशनी का सहारा थी l 
अँधियारे से लड़ती इसकी कमजोर लौ बेसहारा थी ll 

टपकती छत अँगीठी अक्सर बुझा जाती थी l
माँ फिर भी साँसे फूँक इसको सुलगा लाती थी ll 

मेरे लिए खाट जो बुनी थी बाबा ने अपनी धोती से l
थपकी की थाप लौरी की गूँज छाप दोनों थी उसमें ll

माँ की उस रसोई से भी दुलार ऐसा बरस आता था l 
सूखी रोटी नमक में भी मक्खन स्वाद का आता था ll   

मोहताज़ थी वो झोपड़ी खंडहर एक दरवाज़े के लिए l
फिर भी कोई कमी ना थी माँ बाबा के उस क्षत्रशाल में ll

महसूस हुई ना कभी कोई कमी इसकी धूप छाँव में l 
अजीब सा सकून था उस झोपड़े की दरों दीवार में ll 

मिल जाये वो ही सकून एक बार फिर से l 
रो दिया लिपट यादों की उस तस्वीर से ll 

Sunday, July 18, 2021

अनाम रिश्ते

कुछ रिश्ते अनाम अनजाने से होते हैं l
सिर्फ ख्यालों में सपने पिरोने आते हैं ll

दायरे इनके सिमटे सिमटे नज़र आते हैं l
नींदों में चिलमन इनके गुलज़ार हो आते हैं ll    

तसब्बुर में इनकी खाब्ब ऐसे घुल मिल जाते हैं l 
जन्नत के उन पल खुली पलकें ही सो जाते हैं ll

परछाइयाँ मेहरम इनकी इस कदर चले आते हैं l
धागे रिश्तें इनसे खुद ही खुद जुड़ते चले जाते हैं ll

खाब्ब कभी नींदों से जो खफा हो जाते हैं l
हलचल दिलजलों सी पीछे छोड़ जाते हैं ll

गुज़ारिश रही नींदो की ख़ब्बों के दरमियाँ l 
उम्र मुकमल होती नहीँ इन रिश्तोँ के बिना ll 

आरज़ू इनके साँसों की पलकों के खाब्बों की l
मियाद सजी रहे अनजाने रिश्तों खाब्बों की ll  

Saturday, July 3, 2021

खामोशियाँ

खामोशियाँ कह गयी लब कह ना पाए जो बात l
लफ्ज अल्फाज बिखर उठे पा कायनात को पास ll 

खत नयनों के छलक पढ़ने लगे कलमों के अंदाज़ l
गूँज उठी अजान साँझ की लिए कई सिंदूरी पैगाम ll

लज्जा रही पलकें सुर्ख हो रहे उसके गुलाबी गाल l
दूर क्षितिज पर भी चमक रहा उसका ही आफ़ताब ll 

तहरीर थी दिल अंजुमन में ताबीर जिसकी चाह l
जुस्तजू मयसर हो गयी रूह रूहानी आगोश समाय ll

लहजा तकरीरें दे गयी सौगात एक दूजे के नाम l 
परदे में भी बेपर्दा हो गए उनके नूरों के साज ll

सँभाला था जिस नफासत को नजाकत की तरह l
नज़राना मेहर हो गयी वो दिल रिवायतों की तरह ll

संजीदा थे इस पनघट की बोलियों के पैगाम l
निसार हो उठी शोखियाँ देख चाँदनी इठलाय ll

खामोशियाँ कह गयी लब कह ना पाए जो बात l
लफ्ज अल्फाज बिखर उठे पा कायनात को पास ll

Thursday, July 1, 2021

दर्पण जैसा

सोचा लम्हा एक चुरा लूँ उन हसीन खाब्बों के पल से l
फिसल गए वो हुनर ना आया मुट्ठी को इस पल में ll

वजूद मेरे किरदार का भी कुछ उस दर्पण जैसा l
अक्स निहार छोड़ गए जिसे हर कोई अकेला ll

पिंजरे बंद परिंदा हूँ उन सुनहरे अरमानों का l
पंख मिले नहीं जिसे कभी उन आसमानों का ll   

छू आँचल निकल गयी वो पवन वेग हठेली भी l
गुलशन फिजायें महकी थी कभी जिस गली भी ll

फासला सिमटा नहीं इन हथेली लकीरों का कभी l
अजनबी बन गया दामन खुद का खुद से तभी ll

सौदा रास ना आया अपनी खुदगर्जी से कभी l
बारीकें सीखी थी जिन की मर्ज़ी से ही कभी ll

बैठा हूँ उन टिमटिमाते जुगनुओं सी सर्द रातों में l
चाँद मेरा भी नज़र आयेगा कभी इस मुँडेर की दीवारों पे ll