जिस धूप की छाँव बन जो सजी सँवरी फिरती थी कभी l
छेड़खानियाँ उसकी अक्सर अश्कों की बारात सी थी सजी ll
जुल्फें अक्सर उसकी उलझी रहती थी सवालों से अटिपटी सी l
फिर भी बेतरतीब लट्टों से यारी थी अँगुलियों रंगदारियाँ नयी सी ll
प्रतिबिंब हज़ारों थे मन दर्पण टूट बिखरे हुए हिस्सों में l
फिर भी उसके अक्स का नूर था इसके हर हिस्सों में ll
तहरीर तालीम जिस दहलीज को दस्तक दे रही थी जो अब l
रुखसत थी छाया इसकी अब अंजुमन मुकाम के इस सफर ll
रंग शायद उसकी जुल्फों का ढ़ल चाँदनी सा निखर गया होगा अब l
शायद तभी मेरी सहर से साँझ का वक़्त भी मुकर्रर हो चला था अब ll
मेहंदी सी गहरी सुरमई छाप सजी थी जिस नफ़ासत धूप की l
कनखियाँ हौले से टोह लेती नफ़ीसी उन छेड़खानियाँ रूह की ll
आलम खुमारी उन खतों में पड़ती झुर्रियों का ही था l
सलवटें भरे उन सादे पन्नों में नाम उसका ही मयस्सर था ll