Saturday, May 21, 2011

वाणी

ओजस्व वाणी बहे जिनके मुखारबिंद से


बन श्रृंगार रस की मुधर धारा


उनके ह्रदय कण कण विराजे


प्रेम अनुराग की धारा


स्वयं सरस्वती विराजे


इन मधुर कंठ की छाया


बहे फिर कैसे नहीं


मीठे रस से भरी


प्रेम रस की भाषा

डर

अंतरमन की व्यथा कहने से डरता हु


गैरों के उपहास से


क्रोधाग्नि में जलने से डरता हु


हां मैं स्वीकार करता हु


मैं डरता हु


आत्मसमान की खातिर


आत्मग्लानी में जलने से डरता हु


जिन्दा रहने की लिए


मरने से डरता हु


हां मैं डरता हु

दोष

पुलिंदा शिकायतों का


गफलत ही गफलत


कसर ही कसर


ध्यान केन्द्रित नहीं


भूल अपनी स्वीकारे नहीं


औरो के सर


दोष मडने से चुके नहीं


लापरवाह बेरुखी से


किसी कार्य का निष्पादन नहीं

अधूरी हसरतें

जुदा हो गयी फिर राहें


अधूरी रह गयी


फिर सब हसरतें


सितम वक़्त ने


फिर ऐसा किया


मिलाके बिछड़ने को


फिर से मिला दिया


सुलगते अरमानों को


फिर से बुझा दिया


ह़र लहमों को फिर से


अनजाना बना दिया

Tuesday, May 10, 2011

नया प्रयास

ज्ञान चक्षु खोल

जिज्ञासा के है बोल

अभिलाषाए होगी अनंत

उद्भव उथान को

नया प्रयास रहेगा सतत

जोर

छलकते नयनों का पैमाना नहीं होता

बहते आंसुओ का ठिकाना नहीं होता

ख़ुशी हो या गम के

आंसुओ पे जोर किसीका नहीं होता

लक्ष्य

लक्ष्य एक स्वरुप अनेक

सुनहरे भविष्य को सिरमौर करने

बड़ चले कदम

अंकुरित हो नयी फसल

खिल उठे सुन्दर कपोल

करने कल्पना को साकार

बड़ गए कदम

कह रही जिन्दगी

कर्म ही पाठशाला

पा लक्ष्य को

खुशियों से

छलक गए नयन

ओर बह रही अश्रुधारा में

मिल बह गया कष्ट सारा

चिंगारी

लील ली एक चिंगारी ने

जिंदगानी सारी

धूं धूं कर सुलग उठी

कायनात सारी

प्रबल प्रचंड अग्नि लपट

पल में भस्म हो गयी

धरोहर सारी

तपिश

तपिश जो मेरी रूहों से निकली

मन को तेरे

प्रेम अगन में

झुलसा गयी

जल गया तन भी

जब तुने साँसों से साँसे मिला दी