हर पाबंदियाँ तोड़ ख़त मैंने अनेक लिखे
किस पत्ते पर भेजूँ यह समझ ना पाया 
ज़िक्र तेरा सिर्फ़ खाब्बों की ताबीर में था 
तेरी जुस्तजूं का भी दिल को पता ना था
रुमानियत भरे खतों के लफ्जों में 
डोर एक अनजानी सी बँधी थी 
पर बिन पत्ते इनकी परछाई भी बैरंगी थी 
कशिश कोई ग़ुमनाम सी छेड़ दिलों के तार 
हर खत बुन रही थी तेरे ही अक्स ए अंदाज़ 
लिए बैठे था ख़त तेरे नाम हज़ार 
उतर आया था इन खतों में 
मानों चुपके से कोई आफ़ताब  
और हौले से बेपर्दा कर गया 
रूह को मेरी सरे बाज़ार, सरे बाज़ार 
 
 
No comments:
Post a Comment