Saturday, June 13, 2020

दाग

इश्क़ के गुरुर में चूर एक आईना हमनें भी देखा
महताब की अदाओँ सा रंग बदलता इसे देखा

मुनासिब होता दिलों के दरमियाँ फरमाइसे ना होती
शायद खलिस दिलों की तब और जबां होती

हौले हौले फितरत रंगों की बदल गयी
सिलसिलों ने भी गुमनामी की चादर ओढ़ ली

हमने भी फिर मोहब्बत से रंजिश कर ली
कब्र इस दिल की अपने ही हाथों खोद दी

बेफिक्री का आलम अब ऐसा छाया हैं
बिन उसके ज़िक्र कोई ना हो पाया हैं

दूर फ़िर फ़लक पर चाँद नज़र आया हैं 
शायद दीदार ए यार को फिर प्यार याद आया हैं

लहू के हर कतरे कतरे से एक ही फ़रियाद आया हैं
दाग के साथ चाँद और हसीन नज़र आया हैं 

8 comments:

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    1. आदरणीय शास्त्री जी
      रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
      आभार
      मनोज

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (08-06-2020) को 'कुछ किताबों के सफेद पन्नों पर' (चर्चा अंक-3733) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

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    1. आदरणीय रविन्द्र जी
      मेरी रचना को अपना मंच देने के लिए शुक्रिया
      आभार
      मनोज

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  3. सुंदर रचना

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    1. आदरणीय ओंकार जी
      आपका बहुत बहुत धन्यवाद
      आभार
      मनोज

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  4. Replies
    1. आदरणीया अनीता जी
      आपका बहुत बहुत धन्यवाद
      आभार
      मनोज

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