Friday, July 10, 2020

अझबूझ

साँसे गिरवी रखी थी मोहलत कुछ मिल जाए l
महरूम थी पनागाह नसीब वो आसमां मिल जाए ll

छूट गए कदमों की निशां जानें कौन सी अजनबी मंज़िलों पे l
बेरुखी इस कदर छाई मुरझा गयी कपोल अनजानी राहों में ll

दस्तूर रिवाज़ यह कैसा हैं अपना भी सब पराया हैं l 
छूआ जिस साये को वो भी एक टूटी प्रतिछाया हैं ll

समझौता था दर्द का अपने ही दर्द की ख़ामोशी से l 
जलता रहा जिस्म रिसता रहा लहू अपनी ख़ामोशी से ll

पुकार था जिसे एक बार सी लिए लबों ने वो जज्बात l
रुँध गया कंठ थरथरा उठे उजड़े चमन के अरमान ll

पड़ गए पैरों में घुँघरू हाथों में जाम l
नचा रही किस्मत कोठे बन गए धाम ll

मिली ना मुक्ति मिले ना चैन चलते रहे जहर बुझे बाणों के खेल l
गिरवी रखी साँसे भी शिथिल हो गयी देख यह अझबूझ खेल ll

3 comments:

  1. Replies
    1. आदरणीय शास्त्री जी
      रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
      आभार
      मनोज

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