Wednesday, June 14, 2023

छेड़खानियाँ

जिस धूप की छाँव बन जो सजी सँवरी फिरती थी कभी l

छेड़खानियाँ उसकी अक्सर अश्कों की बारात सी थी सजी ll


जुल्फें अक्सर उसकी उलझी रहती थी सवालों से अटिपटी सी l

फिर भी बेतरतीब लट्टों से यारी थी अँगुलियों रंगदारियाँ नयी सी ll


प्रतिबिंब हज़ारों थे मन दर्पण टूट बिखरे हुए हिस्सों में l

फिर भी उसके अक्स का नूर था इसके हर हिस्सों में ll


तहरीर तालीम जिस दहलीज को दस्तक दे रही थी जो अब l

रुखसत थी छाया इसकी अब अंजुमन मुकाम के इस सफर ll


रंग शायद उसकी जुल्फों का ढ़ल चाँदनी सा निखर गया होगा अब l

शायद तभी मेरी सहर से साँझ का वक़्त भी मुकर्रर हो चला था अब ll


मेहंदी सी गहरी सुरमई छाप सजी थी जिस नफ़ासत धूप की l

कनखियाँ हौले से टोह लेती नफ़ीसी उन छेड़खानियाँ रूह की ll


आलम खुमारी उन खतों में पड़ती झुर्रियों का ही था l

सलवटें भरे उन सादे पन्नों में नाम उसका ही मयस्सर था ll

5 comments:

  1. आलम खुमारी उन ख़तों में,,,,,,बाह मनोज जी बहुत बेहतरीन रचना ।

    ReplyDelete
  2. मेहन्दी सी गहरी छाप सजी थी जिस नफ़ासत धूप की।
    कनखियाँ हौले से टोह लेती नफ़ीसी उन छेड़खानियाँ रूह की॥
    बहुत सुन्दर !! मधुरिम भावाभिव्यक्ति ।

    ReplyDelete
  3. प्रतिबिंब हज़ारों थे मन दर्पण टूट बिखरे हुए हिस्सों में l

    फिर भी उसके अक्स का नूर था इसके हर हिस्सों में ll
    वाह!!!!
    बहुत ही सुंदर गजल।

    ReplyDelete
  4. मन के कोमल भावों को प्रदर्शित करती रचना ... बहुत लाजवाब ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय दिगम्बर भाई साब
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

      Delete