Wednesday, December 5, 2018

गूँगी

सब कुछ हैं पास फ़िर भी अकेला हूँ

जिंदगी की भीड़ में तन्हा खड़ा हूँ

आँसू भी अब तो लगे पराये से हैं

रूह भी जिस्म से जैसे जुदा जुदा हैं

हाथों की लकीरें अधूरी अधूरी सी हैं

किस्मत मानो जैसे गहरी निंद्रा सोई हैं

साज़िश ना जाने कौन सी छिपी हैं

हर मुक़म्मल प्रार्थना भी मानों अधूरी सी हैं

शायद खुदगर्ज़ बन खुदा भी गूँगी बन सोई हैं

गूँगी बन सोई हैं

दुहाई

खुदगर्ज़ हैं अगर तू ए ख़ुदा

तो मैं भी अधूरे सपनों की ताबीर लिए खड़ा हूँ

जंग छिड़ी हैं आज हम दोनों बीच

क्या फ़र्क पड़ता हैं

किस्मत जो तूने लिखी नहीं

फ़िर भी अधूरी हाथों की लकीरें कर्म से पीछे हटती नहीं

मायूस हूँ मैं ए ख़ुदा

पर लाचार नहीं

जीत आज तू मुझसे सकता नहीं

आगे बढ़ते मेरे कदमों को रोक सकता नहीं

स्वाभिमान की पराकाष्ठा आज तेरे अहंकार से टकराई हैं

देख मेरे बुलंद हौसलों को

खड़ा हो जा तू भी मेरे संग

वक़्त भी आज दे रहा यह दुहाई हैं

दे रहा यह दुहाई हैं



Thursday, November 8, 2018

तस्वीर

तस्वीर तेरी धुँधली हो गयी

या मेरे आँखों की रोशनी मंद हो गयी

छूट गयी यारी जो तेरी गलियों से

दूर हो गयी नजरें मेरी तेरी चाहतों से

बिन सप्तरंगी रंगों के आँगन में

खोये हुए ख्यालों की चादर में

हल्की हल्की मध्यम रोशनी के सायों में

जलते बुझते चाहतों के अँगारों में

आँख मिचौली खेल रही तस्वीर तेरी

मेरी बोझिल होती आँखों से

टूट ना जाये तस्वीरों का यह बंधन

टटोली फिर यादों की अलमारी

शायद मिल जाए रोशनी की कोई किरण

छट जाए धुंध पड़ी जो बनते बिगड़ते रिश्तों पर

निखर साफ़ हो आये तस्वीर पुनः

ओझल होती इन पलकों में 

Thursday, October 4, 2018

मिथ्या

हर मिथ्या भी एक सत्य हैं

जाने किसके पीछे क्या रहस्य हैं

हर तरफ फ़ैला हुआ एक भ्रम हैं

पिरोया हुआ जिसमें एक कटु सत्य हैं

धूल पड़ी हो दर्पण पर जहाँ

असत्य ही वहाँ सत्य का आईना हैं

जमघट लगा हो झूठों का जहाँ

उड़ती हैं अफवाहें रोज नयी नयी वहाँ

सत्य असत्य की इस हलचल में

सत्य का यहाँ कोई मौल नहीं

फ़र्क करें तो करें कैसे

मिथ्या भँवर का इस युग में कोई तोड़ नहीं

इस युग में कोई तोड़ नहीं

पत्थरों का शहर

पत्थरों का शहर हैं ऐ ज़नाब

मुर्दाघरों सा यहाँ सन्नाटा हैं

बियाबान रात की क्या बात

दिन के उज्जाले में भी यहाँ

अस्मत आबरू शर्मसार हैं

कहने को हैं ए सभ्य समाज

पर जंगल का यहाँ राज हैं

दरिन्दों की हैवानियत के आगे

मूक जानवर भी यहाँ लाचार हैं

पानी से सस्ता बिकता मानव लहू यहाँ

शायद इसलिए

नरभक्षियों की बिसात के आगे यहाँ

खुदा भी खुद मौन विवश लाचार हैं

इसी कारण

पत्थरों के इस शहर में

कुदरत के कानून के आगे

मानवता जैसे कफ़न में लिपटी

कोई जिन्दा लाश हैं, कोई जिन्दा लाश हैं