Wednesday, September 3, 2025

वियोग

तन्हा स्याह रातों को जब खुद से बातें करता हूँ l

अश्कों तर लिहाफ़ आँचल आगोश सुला जाती हैं ll


इबादत नूर दामन जिसके कबूल की थी जो रातें l

वो विरोह वियोग काजल सी गालों को रंग जाती हैं ll


फलक से ज़मी मिश्रित साँझ की बेबस हमदम गुनाह रातें l

जन्नत फ़रिश्ते सी हरियाली दुआ बन सँवर आती हैं ll


दृष्टि ध्वनि ज़ज्बात भ्रम लहू रंग जब पाती हैँ l

खुद से ही बेगानी हो एक पहेली बन जाती हैं ll


अधूरी तलाश जाने कौन से उस अक्षर ख़लिश की l

रात अकेले नमी बन नयनों सैलाब बन बह आती हैं ll


झपकी एक खलल दे जाती हैं इन ख्यालात ताबीर को l

तृष्णा वैतरणी अंगारे लावा पिघला निंद्रा सुला जाती हैं ll

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