तन्हा स्याह रातों को जब खुद से बातें करता हूँ l
अश्कों तर लिहाफ़ आँचल आगोश सुला जाती हैं ll
इबादत नूर दामन जिसके कबूल की थी जो रातें l
वो विरोह वियोग काजल सी गालों को रंग जाती हैं ll
फलक से ज़मी मिश्रित साँझ की बेबस हमदम गुनाह रातें l
जन्नत फ़रिश्ते सी हरियाली दुआ बन सँवर आती हैं ll
दृष्टि ध्वनि ज़ज्बात भ्रम लहू रंग जब पाती हैँ l
खुद से ही बेगानी हो एक पहेली बन जाती हैं ll
अधूरी तलाश जाने कौन से उस अक्षर ख़लिश की l
रात अकेले नमी बन नयनों सैलाब बन बह आती हैं ll
झपकी एक खलल दे जाती हैं इन ख्यालात ताबीर को l
तृष्णा वैतरणी अंगारे लावा पिघला निंद्रा सुला जाती हैं ll
बढ़िया
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