Thursday, January 10, 2013

अस्मत

डर लगता है अपने साये से भी अब

बदल गयी वक़्त की चाल भी अब

महफूज थी जो कल तलक

भयभीत है वो अस्मत आजकल

हैवानियत की नयी भाषा गढ़ी जिन्होंने

कब निकल आये उन दरिंदो के पर

सोच के इस डर को

अब अपने साये से भी लगने लगा है डर

कुदरत भी उनके डर से थर्रा रही

शरमों हया से लज्जा रही

मूकदर्शक बनी

आँखों ही आँखों आँसू बहा रही

विवश है किस्मत बेचारी

अस्मत की रक्षा खातिर

डर रही आज अपने साये भी नारी





 

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