Saturday, December 12, 2015

वो लह्मा

वो लह्मा मेरा ना था

नाता मेरा तुझसे कोई ना था

पर रुखसत जो तू हुईं

मोहल्ला वो अब गँवारा ना था

मगर यादों का जो बसेरा था

फिर भी खाब्ब तेरे ही संजोता था

रास जिंदगी को

पल यह ना आया था

ओर कह अलविदा तेरे शहर को

तलाशने रूह अपनी

कदम नयी मंजिल को बढ़ाया था

पर दिल को कोई ना भाया था

क्योंकि हर अक्स में 

तेरा ही नूर नज़र आया था

तेरा ही नूर नज़र आया था


2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (13-12-2015) को "कितना तपाया है जिन्दगी ने" (चर्चा अंक-2189) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आभार शास्त्री जी

      सादर
      मनोज क्याल

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