Wednesday, October 4, 2017

अपरिचित नींद

नींद भी आज कल कुछ ख़फ़ा ख़फ़ा हो

अपरिचित बेगानी सी रहती हैं 

पलकों की खुशामदी दरकिनार कर

आँखों से कोसों दूर रहती हैं 

अक्सर ख्यालों में विचरण को

तन्हा नयनों को छोड़ जाती हैं

अधखुली पलकों में

स्याह रात गुजरती नहीं

बेदर्द बेपरवाह नींद

आँख मिचौली से फिर भी बाज आती नहीं

पलकों की बेताबियों से वाकिफ़

शरारतों से अपनी नींद

कभी कभी अश्रु धारा प्रवाहित कर जाती हैं

बोझिल पलकों की फ़रियाद अनसुनी कर

नयनों से नींद नदारद हो जाती हैं

सूनी सूनी पलकों की दहलीज़

नींद की आहट को आतुर

मजबूरन कर बंद आँखों को

ख्यालों से लिपट सो जाती हैं


1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-010-2017) को
    "भक्तों के अधिकार में" (चर्चा अंक 2749)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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