Tuesday, July 9, 2019

नज़रअंदाज़

हुनर ना आया उन्हें नज़रअंदाज़ करने का

स्वांग रचा मशरूफ होने का

पर अंदाज़ गुस्ताख़ नयनों का

दिल ए नादान संभाल ना पाया

फिसल गया

देख कायनात में  जन्नत की माया

रूह लिख रही थी जैसे

हर तरफ आयतों का साया

कलमा था वो बड़ा ही पाक ए नबीज़

गुनगुना रही थी जो वो दिल ए अज़ीज़

मशगूल थी वो अपनी ही धुन में

भूल बैठी थी

दिल भी वही कही है करीब में

वही कही है करीब में 

5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-07-2019) को "नदी-गधेरे-गाड़" (चर्चा अंक- 3392) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय शास्त्री जी

      मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए शुक्रिया

      आभार
      मनोज क्याल

      Delete
  2. बहुत सुंदर प्रस्तुति ।

    ReplyDelete
  3. आदरणीय

    बहुत बहुत धन्यवाद

    सादर
    मनोज

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

    ReplyDelete