Tuesday, March 8, 2022

मल्हार

माना की वहम थी वो सांवली सी काया इन आँखों की l
पर अर्ध चाँद सी अधूरी ताबीर थी इस नूर ए अंदाज की ll

मौसम भी ऐसा बे रुत बदला इसके अंजुमन साज में l
मेघ मल्हार सज गया जैसे किसी प्यासे  रेगिस्तान में ll

छांव सलोनी सी खाब्बों की ढलती रात मुलाक़ातों की l
खलिस इस रहगुज़र की मौन करवटें बदलती रातों की ll

महकी थी फिजां हीना की कभी कभी उस दालान आस पास भी l
अहसास जब कभी सिमट आये इनके रुखसार दरमियाँ पास भी ll

किस्सा ए बयां थी उन बेईमान धड़कनों किस्तों का l
अनजानी अजनबी उन मचलती आरजू अंतरंगों का ll

एक सदी सी गुजर गयी रंगते रंगते रूह जिस कायनात की l
तस्वीर फिर भी अधूरी रह गयी उस सांवली काया साज की ll

8 comments:

  1. बहुत सुंदर सराहनीय सृजन ।

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    1. आदरणीया मीना दीदी जी
      आपका तहे दिल से शुक्रिया

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  2. मौसम भी ऐसा बे-ऋतु बदला इसके अंजुमन साज में l
    मेघ मल्हार सज गया जैसे किसी प्यासे रेगिस्तान में ll,,,,, बहुत सुंदर लाजवाब रचना,

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    1. आदरणीया मधुलीका दीदी जी
      आपका तहे दिल से शुक्रिया

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  3. तस्वीर फिर भी अधूरी रह गयी उस सांवली काया साज की-सुन्दर -सटीक अभिव्यक्ति

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    1. आदरणीय भाई साब

      आपका दिल से शुक्रिया

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  4. बहुत ही उम्दा एहसासों का सृजन।
    सुंदर सुघड़।

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    1. आदरणीया कुसुम दीदी जी
      आपका तहे दिल से शुक्रिया

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