आकृति मेरी प्रतिलिपि की जी रही किसी और के साये सी l
मगर खुदगर्ज़ी सी वो पहेली मानो नचा रही इसे तांडव सी ll
धोखा था उसकी उस साँझ का ख्वाब महका था जिसके छांव तले l
गुलजार पनघट सा वो नज़र आता था जिस महताब की डगर तले ll
अक्सर उस जगह जहाँ मैं भूल आता था पता अपना ही l
फ़िज़ाओं की उन लिफाफों के करवटों सलवटों साये तले ll
कभी रूबरू खुद को करा ना पाया उनके अंतरंगी पलों से l
आधे अधूरे खत के उन लिफाफों के बिखरते सप्तरंगी रंगों से ll
कुछ कदम का फासला था प्रतिबिंब की उस परछाई से l
दबी थी रूह मेरी आकृति की जिस साये की परछाईं से ll