गूँथ रहा हु शब्दों की माला
हर शब्द महके जैसे गुलाब की माला
निकले जब मुख मंडल से
बेसुरी राग भी बन जाए
कोकिल कंठनि सी मधुर भाषा
गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला
स्पर्श कर दे मन मस्तिष्क
और द्रवित हो पिघल जाए
बैमनस्य की भावना
गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला
खिल उठे हर गुल
ढह जाए अहंकार की भावना
समाहित हो जिसमें
अपनेपन की भावना
गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला
हर शब्द महके जैसे गुलाब की माला
निकले जब मुख मंडल से
बेसुरी राग भी बन जाए
कोकिल कंठनि सी मधुर भाषा
गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला
स्पर्श कर दे मन मस्तिष्क
और द्रवित हो पिघल जाए
बैमनस्य की भावना
गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला
खिल उठे हर गुल
ढह जाए अहंकार की भावना
समाहित हो जिसमें
अपनेपन की भावना
गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (10-06-2014) को "समीक्षा केवल एक लिंक की.." (चर्चा मंच-1639) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
धन्यवाद महोदय
Deleteसार्थक प्रस्तुति...
ReplyDeleteधन्यवाद महोदय
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