Thursday, October 6, 2022

आकृति

आकृति मेरी प्रतिलिपि की जी रही किसी और के साये सी l

मगर खुदगर्ज़ी सी वो पहेली मानो नचा रही इसे तांडव सी ll


धोखा था उसकी उस साँझ का ख्वाब महका था जिसके छांव तले l

गुलजार पनघट सा वो नज़र आता था जिस महताब की डगर तले ll 


अक्सर उस जगह जहाँ मैं भूल आता था पता अपना ही l

फ़िज़ाओं की उन लिफाफों के करवटों सलवटों साये तले ll


कभी रूबरू खुद को करा ना पाया उनके अंतरंगी पलों से l

आधे अधूरे खत के उन लिफाफों के बिखरते सप्तरंगी रंगों से ll


कुछ कदम का फासला था प्रतिबिंब की उस परछाई से l

दबी थी रूह मेरी आकृति की जिस साये की परछाईं से ll

12 comments:

  1. बहुत खूब 👌👌

    कायल कर दिया आपने!!

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    1. आदरणीया रूपा दीदी जी
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 7.10.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4574 में दिया जाएगा|
    धन्यवाद
    दिलबाग

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    1. आदरणीय दिलबागसिंह भाई साब
      मेरी रचना को अपना मंच प्रदान करने के लिए तहे दिल से आपका आभार

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  3. Replies
    1. आदरणीय ओंकार भाई साब
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  4. बहुत ख़ूब !! बहुत सुन्दर कृति ।

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    1. आदरणीया मीना दीदी जी
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  5. बहुत ही बेहतरीन 👌

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    1. आदरणीया अनीता दीदी जी
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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  6. वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर ।

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    1. आदरणीया सुधा दीदी जी
      सुंदर शब्दों से हौशला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से धन्यवाद

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