Thursday, April 2, 2020

विचलित पलकें

दरकिनार कर आँखों के पैगाम

नींद भी खो गयी पलकों के साथ

बेचैन हो रही नज़रें

ढूँढने सपनों में अपना किरदार

अर्ध निशा तलक करवटों ने भी छोड़ दिया साथ

सोचा गुजार लूँ कुछ पल चाँद के साथ

निहारा झरोखें से

पाया नदारद हैं चाँद भी सितारों के साथ

रात प्रहर लंबी हो गयी

एकांत सिधारे नींदों के पैगाम

हर घड़ी टटोल रही आँखे

विचलित पलकें नींदों के नाम

विचलित पलकें नींदों के नाम  

Wednesday, April 1, 2020

अहंकार

देख मानव के नित नये जैविक हथियारों के आविष्कार

कायनात भी स्वतः आ पहुँची नष्ट होने के कगार

बिन चले एक भी तोप , गोली और तलवार

हर ओर लग गये पर्वतों से ऊपर लाशों के अम्बार

रास ना आया प्रकृति को अहंकारी मानव का

चेतना शून्य वर्चस्व का यह अंदाज़

मूक दर्शक बन रह गया बस ख़लीफ़ा

नेस्तनाबूद हो रही सम्पूर्ण सृष्टि आज

सन्नाटा मरघट का ऐसा पसरा चहुँ ओर

जल रही चिताओं की होली बुझा गयी जीवन लौ 

शिथिल पड़ गयी मानवता विनाश लीला वेग को

रो उठी कुदरत देख अपनी ही रचना तांडव आकार

प्रतिघात कर प्रहार कर सभ्यता के सीने को

अपने स्वार्थ को कलंकित दृष्टि विहीन मानव ने

जुदा कर दिया सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परछाई को

जुदा कर दिया सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परछाई को 

Thursday, March 26, 2020

पूर्णविराम

ध्वंश हो गयी ध्वनि बेला

कुदरत के नए तांडव गांडीव से आज

अभिलेख ऐसा लिखा मानव ने

कायनात अपनी ही रूह से महरूम होती जाय

प्रलय काल बन गयी सम्पूर्ण सृष्टि

विलुप्त हो रहे सारे नैसगर्गिक भाव

वरदान थी जो प्रकृति अब तलक

दफ़न कर नए उत्थान की बात

अभिशाप नरसंहार बेरहम बनती जाय

अपने अभिमान गुरुर में भूल मर्यादा रेखा को

लहूलुहान छलनी कर सीना सृजन दाता को

लिख दिया मानव कुंठा ने नया विपत्ति अध्याय

रूठ गयी कुदरत अपनी ही बेमिशाल रचना के

बिगड़ते बिखरते अजब गजब पैमानों से आज

नाग बन डस गये मानव को

उसके ही विनाशकारी हथियार आय

लग गया ग्रहण सम्पूर्ण सृष्टि पर

कायनात के इन पूर्णविरामों से आज

कायनात के इन पूर्णविरामों से आज  

Friday, March 20, 2020

बेबस नारी

सहम जाती हूँ परछाई से भी अपनी

नुमाईस लगा रखी हैं अंधकार ने इतनी

शुष्क लबों को डरा रही

आहट पद्चापों की अपनी

कितनी व्यतिथ यह जिंदगानी हैं

हर गली चौराहों नुक्कड़ पे

शाम ढले यही कहानी हैं

वहशी दरिंदों की नजरों ने पहनी

हैवानियत हवस की लाली हैं

चीरती कोई चीख वीरान सन्नाटे को

हृदयगति एक पल को ठहरा जाती हैं

कितनी बेबस बना दिया कुनबे ने

अपने ही साये से सहमी रहती हर नारी हैं 

अपने ही साये से सहमी रहती हर नारी हैं  

Wednesday, February 12, 2020

तेरा शहर

नाता तेरे शहर से पुराना  हैं 

उस बरगद का अफसाना आज का फ़साना सा हैं

दरमियाँ जो समेट ली थी चाहतें

वो तो बस मुलाक़ात का एक बहाना हैं

गुजरू जब कभी तेरे शहर की गलियों से

लगे आज भी चमन खिल आया

मानों पीपल की टहनियों पे

पसरी जहां मेरे शाम की इबादत हैं

तेरे साये में वहा आज भी मेरे रूह की ही हुकूमत हैं

चौखट दहलीज की कभी लाँघ ना पाया

डोली तेरी किसी और किनारे छोड़ आया

फिर भी अपने आँगन से तेरी खनख विदा ना कर पाया

ना ही तेरे वजूद को खुद से रुखसत कर पाया

और उन शबनमी यादों की मिठास में

तेरे शहर से ही रिश्ता निभाता चला आया