Wednesday, July 9, 2014

दास्ताँ

दास्ताँ अरमानों की है

बुनते बिखरते सपनों की है

पर लगाके उड़ते अफसानों की है

वबंडर की आँधी में

छू ना पाये अंबर

दास्ताँ ऐसे अरमानों की है

ख्यालों की कवायद में

बेसुध रहने की

दास्ताँ ऐसे बुनते बिखरते सपनों की है

मीठे अहसास की

दर्द ए जूनून बन जाने की

दास्ताँ ऐसे अफसानों की है

दास्ताँ अरमानों की है

Thursday, July 3, 2014

वो दिन

कितना हसीन वो दिन था

परिणय उत्सव माहौल था

शहनाई की धुन

सज रहा मंगल गान था

वरण करने चाँदनी को

चाँद

सितारों की बारात ले आया था

अंगीकार कर उस सृष्टि रचना को

जीवन अर्धांगनी बना लाया था

बांधने आशीर्वाद का समां

उस मंजर

खुद खुदा भी साक्षी बन आया था

कितना हसीन वो दिन था

Monday, June 9, 2014

शब्दों की माला

गूँथ रहा हु शब्दों की माला

हर शब्द महके जैसे गुलाब की माला

निकले जब मुख मंडल से

बेसुरी राग भी बन जाए

कोकिल कंठनि सी मधुर भाषा

गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला

स्पर्श कर दे मन मस्तिष्क

और द्रवित हो पिघल जाए

बैमनस्य की भावना

गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला

खिल उठे हर गुल

ढह जाए अहंकार की भावना

समाहित हो जिसमें

अपनेपन की भावना

गूँथ रहा हु ऐसे शब्दों की माला


Monday, May 19, 2014

पीनेवालों का महजब

ये दुनियावालों

हम पीनेवालों का महजब ना पूछो

साकी की जात ना पूछो

मयख़ाने की गलियों की बहार ना पूछो

छलकते जामों की लय ताल ना पूछो

भुला दे जो हर गम

लगा लबों से अपने

उस मदिरा की चाल ना पूछो

डूब जाए जिसकी मदहोशी के आलम में

पूछो तो बस उस साकी के घर का पता पूछो

उस साकी के घर का पता पूछो

Tuesday, May 6, 2014

पराया

कल तक  जो शहर अपना लगता था

शहर वो आज पराया  लगता है

रूह थी तू जिसकी

तेरे चले जाने से

शहर वो बेगाना सा लगता है

बसते थे जज्बात जहां

वो शहर अब सैलाब का दरिया लगता है

चमन था जो तेरे हुस्न से

वो शहर आज उजड़ा वीरान लगता है

कल तक  जो शहर अपना लगता था

शहर वो आज पराया  लगता है

रूह थी तू जिसकी

तेरे चले जाने से

शहर वो बेगाना सा लगता है

कल तक  जो शहर अपना लगता था

शहर वो आज पराया  लगता है