साजिश रचते रहे ता उम्र वो हमारे खिलाफ
कभी नजरों से क़त्ल की कभी दिल चुराने की
पर मेहरबाँ ना थी शायद किस्मत उनकी
क्योंकि बदल जाती थी फितरत उनकी
मुस्कान लबों की हमारी उनको जब छू जाती थी
भूल सुध बुध स्तब्ध सी पत्थर की मूरत वो बन जाती थी
हौले से उनकी जुल्फें हिजाब जब सरका जाती थी
साजिशें रचती थी वो बड़ी हसीन मगर
हम जैसे अलबेलों को कहा वो रास आती थी
पर सच कहुँ तो
बुझी बुझी चाँदनी में भी वो महताब नजर आती थी
जो नज़रों को तो भाती थी
पर दिल में ना उतर पाती थी
शायद इसीलिए
हमारी जीत में भी उनको हमारी हार नजर आती थी
हमारी हार नजर आती थी
कभी नजरों से क़त्ल की कभी दिल चुराने की
पर मेहरबाँ ना थी शायद किस्मत उनकी
क्योंकि बदल जाती थी फितरत उनकी
मुस्कान लबों की हमारी उनको जब छू जाती थी
भूल सुध बुध स्तब्ध सी पत्थर की मूरत वो बन जाती थी
हौले से उनकी जुल्फें हिजाब जब सरका जाती थी
साजिशें रचती थी वो बड़ी हसीन मगर
हम जैसे अलबेलों को कहा वो रास आती थी
पर सच कहुँ तो
बुझी बुझी चाँदनी में भी वो महताब नजर आती थी
जो नज़रों को तो भाती थी
पर दिल में ना उतर पाती थी
शायद इसीलिए
हमारी जीत में भी उनको हमारी हार नजर आती थी
हमारी हार नजर आती थी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-06-2016) को "पात्र बना परिहास का" (चर्चा अंक-2369) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी
ReplyDeleteसादर
मनोज