Thursday, June 9, 2016

साजिश

साजिश रचते रहे ता उम्र वो हमारे खिलाफ

कभी नजरों से क़त्ल की कभी दिल चुराने की

पर मेहरबाँ ना थी शायद किस्मत उनकी 

क्योंकि बदल जाती थी फितरत उनकी

मुस्कान लबों की हमारी उनको जब छू जाती थी

भूल सुध बुध स्तब्ध सी पत्थर की मूरत वो बन जाती थी

हौले से उनकी जुल्फें हिजाब जब सरका जाती थी

साजिशें रचती थी वो बड़ी हसीन मगर

हम जैसे अलबेलों को कहा वो रास आती थी

पर सच कहुँ तो

बुझी बुझी चाँदनी में भी वो महताब नजर आती थी

जो नज़रों को तो भाती थी

पर दिल में  ना उतर पाती थी

शायद इसीलिए

हमारी जीत में भी उनको हमारी हार नजर आती थी

हमारी हार नजर आती थी




2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-06-2016) को "पात्र बना परिहास का" (चर्चा अंक-2369) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. धन्यवाद शास्त्री जी
    सादर
    मनोज

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