Wednesday, July 4, 2012

दृष्टिहीन समाज

दृष्टिहीन समाज हमारा

सुरसा की तरह बड़ रही

सवालों की छाया

फैला अँधियारा दूर तक

दिग्भ्रमित हो

भटक रहे नौ निहालों के कदम

गर्त समा रही चेतना सारी

स्वार्थ भावना से

संसय बनी कमजोरी हमारी

इस काल चक्र ने

बदल दिया सम्पूर्ण रूप

विभस्त हो गया समाज का स्वरुप

विभस्त हो गया समाज का स्वरुप

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