Monday, March 18, 2013

दर्पण

दर्पण  में अपना अक्स निहारु

फितरत कभी बदली नहीं

दर्पण  झूट कहता नहीं

प्रतिबिम्ब सत्य निहारु

रंग भरे जो फितरत में

तस्वीर वो निहारु

दिखे पर वो ही श्वेत श्याम रंग

कैसे अपना अक्स बदल डालू

बेदर्द रंगों के दर्द

भरने ना दे जब अक्स में अपने रंग

क्यों फिर मैं दर्पण निहारु

गुस्ताखी ये हो ना जाए कही

क्यों ना इसलिए दर्पण ही बदल डालू 

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