Thursday, August 23, 2018

भटकना

कारवाँ वो ठहर सा गया था

निकला था जो मुक़ाम की राह

अनजाने मोड़ पर ठिठक गया था

कुछ रहस्यमयी किरणों का उजाला सा था

खड़ा था कोई अनजाना उस मुक़ाम पे

व्याकुल था जो मुझमें समा जाने को

सम्मोहित सा हो गया मन बाबरा था

भटक मंजिल की राहों से

अनजानी प्रीत के इस सम्मोहन में

जिंदगी अपनी लूटा जाने को बेक़रार था

तिल्सिम का रहस्य भरा यह पिटारा था

ख़जाना संगीत का लुटा रहा था

इससे आगे अब मंजिल का निशा ना था

इसके जादू में मन बाबरा हो भटक रह था

मन बाबरा हो भटक रह था 







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