दिल आज फ़िर कुछ कह रहा हैं
चल मैं और तुम कुछ लिखतें हैं
गुजरे पलों का हिसाब ग़ज़लों में करते हैं
अधूरी रह ना जाये कोई नज़्म
इसलिए क्यों ना फ़िर
शायरी के अल्फजाओं में जिन्दा रहते हैं
झलक दिख रही हो दर्पण में जैसे
चमक रही चाँदनी सितारों में जैसे
छलक जाये क्यों ना फिर मैं और तुम
गीत बन बरसने बेताब तरन्नुम में
हर महफ़िल सज जाये तेरे मेरे गीतों में
निहारे फ़िर जब कभी उस पल को
निखर आये क़ायनात सारी
ग़ज़ल के सिर्फ एक ही लफ्जों में
ग़ज़ल के सिर्फ एक ही लफ्जों में
चल मैं और तुम कुछ लिखतें हैं
गुजरे पलों का हिसाब ग़ज़लों में करते हैं
अधूरी रह ना जाये कोई नज़्म
इसलिए क्यों ना फ़िर
शायरी के अल्फजाओं में जिन्दा रहते हैं
झलक दिख रही हो दर्पण में जैसे
चमक रही चाँदनी सितारों में जैसे
छलक जाये क्यों ना फिर मैं और तुम
गीत बन बरसने बेताब तरन्नुम में
हर महफ़िल सज जाये तेरे मेरे गीतों में
निहारे फ़िर जब कभी उस पल को
निखर आये क़ायनात सारी
ग़ज़ल के सिर्फ एक ही लफ्जों में
ग़ज़ल के सिर्फ एक ही लफ्जों में
आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (27-08-2018) को "प्रीत का व्याकरण" (चर्चा अंक-3076) पर भी होगी!
ReplyDelete--
रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब।
ReplyDeleteशायरी के अल्फजाओं में जिन्दा रहते हैं