माना ज्ञानी नहीं अज्ञानी हूँ मैं
फ़िर भी गुरुर से सराबोर रहता हूँ मैं
तिलक हूँ किसीके माथे का
महक से इसकी नाशामंद रहता हूँ मैं
नाज़ हैं ख़ुद पे बस इतना सा
अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूँ मैं
अपनों से फिक्रमंद नहीं रजामंद हूँ मैं
दिल की दौलत से ऐसा सजा हूँ मैं
फ़कीरी में भी अमीरी से लबरेज़ रहता हूँ मैं
ना ही मैं कोई संत हूँ ना ही कोई साधू हूँ
फ़िर भी एक सच्चा साथी हूँ मैं
क्योंकि
अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूँ मैं
फ़िर भी गुरुर से सराबोर रहता हूँ मैं
तिलक हूँ किसीके माथे का
महक से इसकी नाशामंद रहता हूँ मैं
नाज़ हैं ख़ुद पे बस इतना सा
अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूँ मैं
अपनों से फिक्रमंद नहीं रजामंद हूँ मैं
दिल की दौलत से ऐसा सजा हूँ मैं
फ़कीरी में भी अमीरी से लबरेज़ रहता हूँ मैं
ना ही मैं कोई संत हूँ ना ही कोई साधू हूँ
फ़िर भी एक सच्चा साथी हूँ मैं
क्योंकि
अभिमानी नहीं स्वाभिमानी हूँ मैं
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-08-2017) को "चौमासे का रूप" (चर्चा अंक 2702) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
ReplyDelete