बहक रहें हैं साँझ के पैगाम
निहारुँ कैसे दरिया में आफ़ताब
नशे में चूर हैं आसमान
निखर रहा मेहताब का आब
छा रहा जैसे यौवन प्रकाश
खुल रहे मधुशाला के द्वार
कंठ भी बैचैन
बनाने मदिरा को गलहार
डूब जाए इस पहर में
करवटें बदलती रातों के साथ
शामे ग़ज़ल बन जाने को
पाँव भी हो रहे हैं बेताब
सुन सितारों की धुन
देख चाँद का अंदाज
बहक रहें हैं साँझ के पैगाम
निहारुँ कैसे दरिया में आफ़ताब
नशे में चूर हैं आसमान
निखर रहा मेहताब का आब
छा रहा जैसे यौवन प्रकाश
खुल रहे मधुशाला के द्वार
कंठ भी बैचैन
बनाने मदिरा को गलहार
डूब जाए इस पहर में
करवटें बदलती रातों के साथ
शामे ग़ज़ल बन जाने को
पाँव भी हो रहे हैं बेताब
सुन सितारों की धुन
देख चाँद का अंदाज
बहक रहें हैं साँझ के पैगाम
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-08-2017) को "क्रोध को दुश्मन मत बनाओ" (चर्चा अंक 2708) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
गणेश चतुर्थी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'