Thursday, August 24, 2017

साँझ के पैगाम

बहक रहें हैं साँझ के पैगाम

निहारुँ कैसे दरिया में आफ़ताब

नशे में चूर हैं आसमान

निखर रहा मेहताब का आब

छा रहा जैसे यौवन प्रकाश

खुल रहे मधुशाला के द्वार

कंठ भी बैचैन

बनाने मदिरा को गलहार

डूब जाए इस पहर में

करवटें बदलती रातों के साथ

शामे ग़ज़ल बन जाने को

पाँव भी हो रहे हैं बेताब

सुन सितारों की धुन

देख चाँद का अंदाज

बहक रहें हैं साँझ के पैगाम

No comments:

Post a Comment