Thursday, August 24, 2017

साँझ के पैगाम

बहक रहें हैं साँझ के पैगाम

निहारुँ कैसे दरिया में आफ़ताब

नशे में चूर हैं आसमान

निखर रहा मेहताब का आब

छा रहा जैसे यौवन प्रकाश

खुल रहे मधुशाला के द्वार

कंठ भी बैचैन

बनाने मदिरा को गलहार

डूब जाए इस पहर में

करवटें बदलती रातों के साथ

शामे ग़ज़ल बन जाने को

पाँव भी हो रहे हैं बेताब

सुन सितारों की धुन

देख चाँद का अंदाज

बहक रहें हैं साँझ के पैगाम

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-08-2017) को "क्रोध को दुश्मन मत बनाओ" (चर्चा अंक 2708) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    गणेश चतुर्थी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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