Saturday, September 23, 2017

लाशों का दरिया

जिन्दा लाशों का दरिया बन गया मेरा शहर

रूहों का यहाँ नहीं कोई हमसफ़र

बिक गयी मानों यहाँ हर एक आत्मा

तुच्छ विपासना हवस के आगे

मय्यत भी मानों दफ़न ऐसे हो गयी

अपनों के ही आँसुओ को जैसे तरस गयी

वैश्या बन गयी यहाँ हर एक चेतना

भूल ज़मीर को कोठे की दहलीज के आगे 

मोहताज हो गयी राहों को अंतरात्मा

विलुप्त होते संस्कारों में कहीं

रंज इसका रहा नहीं किसीको भी यहाँ जरा

बिन रूह जिंदगी का कोई मौल नहीं

 बिन रूह जिंदगी का कोई मौल नहीं

 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-09-2017) को
    "माता के नवरात्र" (चर्चा अंक 2738)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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