जिन्दा लाशों का दरिया बन गया मेरा शहर
रूहों का यहाँ नहीं कोई हमसफ़र
बिक गयी मानों यहाँ हर एक आत्मा
तुच्छ विपासना हवस के आगे
मय्यत भी मानों दफ़न ऐसे हो गयी
अपनों के ही आँसुओ को जैसे तरस गयी
वैश्या बन गयी यहाँ हर एक चेतना
भूल ज़मीर को कोठे की दहलीज के आगे
मोहताज हो गयी राहों को अंतरात्मा
विलुप्त होते संस्कारों में कहीं
रंज इसका रहा नहीं किसीको भी यहाँ जरा
बिन रूह जिंदगी का कोई मौल नहीं
बिन रूह जिंदगी का कोई मौल नहीं
रूहों का यहाँ नहीं कोई हमसफ़र
बिक गयी मानों यहाँ हर एक आत्मा
तुच्छ विपासना हवस के आगे
मय्यत भी मानों दफ़न ऐसे हो गयी
अपनों के ही आँसुओ को जैसे तरस गयी
वैश्या बन गयी यहाँ हर एक चेतना
भूल ज़मीर को कोठे की दहलीज के आगे
मोहताज हो गयी राहों को अंतरात्मा
विलुप्त होते संस्कारों में कहीं
रंज इसका रहा नहीं किसीको भी यहाँ जरा
बिन रूह जिंदगी का कोई मौल नहीं
बिन रूह जिंदगी का कोई मौल नहीं
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-09-2017) को
ReplyDelete"माता के नवरात्र" (चर्चा अंक 2738)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'