Saturday, September 9, 2017

एक बार फ़िर

चल आज एक बार फ़िर बहकने चलते हैं

लड़खड़ाते कदमों को सँभालने चलते हैं

ना मंदिर ना मस्जिद, थाम खुदा का हाथ

मधुशाला के द्वार चलते हैं

रहमों कर्म से, बिरादरी से इसकी

रूबरू खुदा को भी कराते हैं

हर मर्ज की दवा इसके साये में

खुदा को भी यह दिखलाते हैं

कैफियत के इसके रंगों से

चल एक बार खुदा बन जाते हैं

लड़खड़ाते कदमों को सँभालने चलते हैं

चल आज एक बार फ़िर बहकने चलते हैं

चल आज एक बार फ़िर बहकने चलते हैं



2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-09-2017) को "चमन का सिंगार करना चाहिए" (चर्चा अंक 2723) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर रचना

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