Wednesday, January 20, 2010

स्वछंद

उन्मुक्त हो उडू गगन में

ना कोई बंधन ना जात हो

परिंदे की तरह विचरू नील गगन में

स्वछंद हो फिरू मस्ती में

सम्भोग से समाधी तक

जी भर जिऊ हर पल को

मुक्त रह जी लू प्रकृति ने दिए उस पल को

उन्मुक्त हो उड़ता फिरू गगन में

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